Saturday, March 28, 2009

गुमनामी का ग़म कुछ दर्द लफ्ज़ बन कर दिल से निकल जाते हैं, कुछ शूल बनकर इस दिल में ही रह जाते हैं, इन्ही कहे-अनकहे लफ्जों से लिखी हुई एक दर्द-ऐ-दिल की दास्तान हूँ मैंकुछ आंखों से अश्क बन कर बरस पड़ते हैं,कुछ आंखों में अंगार बन कर रह जाते हैं,इन्ही ख़ामोश, गहरी आंखों में बसे,मूक अश्कों की बेबस जुबां हूँ मैं।कभी गिरी तो ज़मीन पर से न उठाया किसी ने मेरी धूल पोंछकर न सीने से लगाया कभी, ख़ुद गिरना-संभालना बहुत हो चुका, अब इस तन्हाई-बेबसी से परेशान हूँ मैं। आज आया क्या यहाँ पर हे मसीहा कोई???झुककर मुझे उसने उठाया है अभी,पोंछ कर मेरी धूल सीने से लगाया है मुझको,ये क्या हो रहा है? कैसे भला ...सोचकर बहुत हैरान हूँ मैंफिर रख कर मुझे सामने बड़े प्रेम से वो मुझे गौर से पढ़ने लगा, हर लफ्ज़ पे उसकी निगाह जो गयी, पढ़ कर उसकी आँखें डबडबा सी गयीं, जी उठी दास्ताँ, मिल गई रोशनी, यूँ लगा, जैसे अश्कों को जुबां मिल गयी।पर वो भी इंसान था, कोई मसीहा नहीं,पढ़ लिया मगर, समझा न एक लफ्ज़ भी सही,रख दिया मुझे फिर वहीँ ज़मीन पर,और होटों पे उसके हसीं छा गयीऐसे ही न